Thursday 10 September 2015

वल्लभाचार्य


भक्तिकालीन सगुणधारा की कृष्णभक्ति शाखा के आधारस्तंभ एवं पुष्टिमार्ग के प्रणेता श्रीवल्लभाचार्य जी का प्रादुर्भाव संवत् 1535, वैशाख कृष्ण एकादशी को दक्षिण भारत के कांकरवाड ग्रामवासी तैलंग ब्राह्मण श्रीलक्ष्मणभट्ट जी की पत्नी इलम्मागारू के गर्भ से काशी के समीप हुआ। उन्हें वैश्वानरावतार कहा गया है। वे वेदशास्त्र में पारंगत थे। श्रीरूद्र संप्रदाय के श्रीविल्वमंगलाचार्य जी द्वारा इन्हे अष्टादशाक्षर ‘गोपालमन्त्र’ की दीक्षा दी गई। त्रिदण्ड संन्यास की दीक्षा स्वामी नारायणेन्द्र तीर्थ से प्राप्त हुई। विवाह पण्डित श्रीदेवभट्टजी की कन्या- महालक्ष्मी से हुआ, और यथासमय दो पुत्र हुए- श्री गोपीनाथ व श्रीविट्ठलनाथ। भगवत्प्रेरणावश व्रज में गोकुल पहुंचे, और तदनन्तर व्रजक्षेत्र स्थित गोव‌र्द्धन पर्वत पर अपनी गद्दी स्थापित कर शिष्य पूरनमल खत्री के सहयोग से संवत् 1576 में श्रीनाथ जी के भव्य मंदिर का निर्माण कराया। वहां विशिष्ट सेवा-पद्धति के साथ लीला-गान के अंतर्गत श्रीराधाकृष्ण की मधुरातिमधुर लीलाओं से संबंधित रसमय पदों की स्वर-लहरी का अवगाहन कर भक्तजन निहाल हो जाते।

श्रीवल्लभाचार्यजी के मतानुसार तीन स्वीकार्य त8व है-ब्रह्म, जगत् और जीव। ब्रह्म के तीन स्वरूप वर्णित है-आधिदैविक, आध्यात्मिक एवं अन्तर्यामी रूप। अनन्त दिव्य गुणों से युक्त पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण को ही परब्रह्म स्वीकारते हुए उनके मधुर रूप एवं लीलाओं को ही जीव में आनन्द के आविर्भाव का स्त्रोत माना गया है। जगत् ब्रह्म की लीला का विलास है। संपूर्ण सृष्टि लीला के निमित्त ब्रह्म की आत्मकृति है। जीवों के तीन प्रकार है- ‘पुष्टि जीव’ , ‘मर्यादा जीव’ (जो वेदोक्त विधियों का अनुसरण करते हुए भिन्न-भिन्न लोक प्राप्त करते है) और ‘प्रवाह जीव’ (जो जगत्-प्रपंच में ही निमग्न रहते हुए सांसारिक सुखों की प्राप्ति हेतु सतत् चेष्टारत रहते हैं)।

भगवान् श्रीकृष्ण भक्तों के निमित्त ‘व्यापी वैकुण्ठ’ में (जो विष्णु के वैकुण्ठ से ऊपर स्थित है) नित्य क्रीड़ाएं करते हैं। इसी व्यापी वैकुण्ठ का एक खण्ड है- ‘गोलोक’, जिसमें यमुना, वृन्दावन, निकुंज व गोपियां सभी नित्य विद्यमान है। भगवद्सेवा के माध्यम से वहां भगवान की नित्य लीला-सृष्टि में प्रवेश ही जीव की सर्वोत्तम गति है। प्रेमलक्षणा भक्ति उक्त मनोरथ की पूर्ति का मार्ग है, जिस ओर जीव की प्रवृत्ति मात्र भगवद्नुग्रह द्वारा ही संभव है। श्री मन्महाप्रभु वल्लभाचार्य जी के ‘पुष्टिमार्ग’ (अनुग्रह मार्ग) का यही आधारभूत सिद्धान्त है। पुष्टि-भक्ति की तीन उत्तरोत्तर अवस्थाएं है-प्रेम,आसक्ति और व्यसन। मर्यादा-भक्ति में भगवद्प्राप्ति शमदमादि साधनों से होती है, किन्तु पुष्टि-भक्ति में भक्त को किसी साधन की आवश्यकता न होकर मात्र भगवद्कृपा का आश्रय होता है। मर्यादा-भक्ति स्वीकार्य करते हुए भी पुष्टि-भक्ति ही श्रेष्ठ मानी गई है। पुष्टिमार्गीय जीव की सृष्टि भगवत्सेवार्थ ही है- ‘भगवद्रूपसेवार्थ तत्सृष्टिर्नान्यथा भवेत्’। प्रेमपूर्वक भगवत्सेवा भक्ति का यथार्थ स्वरूप है-‘भक्तिश्च प्रेमपूर्विका सेवा’। भागवतीय आधार (‘कृष्णस्तु भगवान् स्वयं’) पर भगवान कृष्ण ही सदा सर्वदा सेव्य, स्मरणीय तथा कीर्तनीय है- ‘सर्वदा सर्वभावेन भजनीयो ब्रजाधिप:।’.. ‘तस्मात्सर्वात्मना नित्यं श्रीकृष्ण: शरणं मम’।
ब्रह्म के साथ जीव-जगत् का संबंध निरूपण करते हुए उनका मत था कि जीव ब्रह्म का सदंश(सद् अंश) है, जगत् भी ब्रह्म का सदंश है। अंश एवं अंशी में भेद न होने के कारण जीव-जगत् और ब्रह्म में परस्पर अभेद है। अंतर मात्र इतना है कि जीव में ब्रह्म का आनन्दांश आवृत्त रहता है, जबकि जड़ जगत में इसके आनन्दांश व चैतन्यांश दोनों ही आवृत्त रहते है। श्रीशंकराचार्य के अद्वैतवाद केवलाद्वैत के विपरीत श्रीवल्लभाचार्य के अद्वैतवाद में माया का संबन्ध अस्वीकार करते हुए ब्रह्म को कारण और जीव-जगत को उसके कार्य रूप में वर्णित कर तीनों शुद्ध तत्वों का ऐक्य प्रतिपादित किए जाने के कारण ही उक्त मत ‘शुद्धाद्वैतवाद’ कहलाया (जिसके मूल प्रवर्तकाचार्य श्री विष्णुस्वामीजी है)। वल्लभाचार्य जी के चौरासी शिष्यों में अष्टछाप कविगण- भक्त सूरदास, कृष्णदास, कुम्भनदास व परमानन्द दास प्रमुख थे। श्री अवधूतदास नामक परमहंस शिष्य भी थे। सूरदासजी की सच्ची भक्ति एवं पद-रचना की निपुणता देख अति विनयी सूरदास जी को भागवत् कथा श्रवण कराकर भगवल्लीलागान की ओर उन्मुख किया तथा उन्हे श्रीनाथजी के मन्दिर की की‌र्त्तन-सेवा सौंपी। तत्व ज्ञान एवं लीला भेद भी बतलाया- ‘श्रीवल्लभगुरू त8व सुनायो लीला-भेद बतायो’ (सूरसारावली)। सूर की गुरु के प्रति निष्ठा दृष्टव्य है-‘भरोसो दृढ़ इन चरनन केरो। श्रीवल्लभ-नख-चन्द-छटा बिनु सब जग मांझ अधेरो॥’ श्रीवल्लभ के प्रताप से प्रमत्त कुम्भनदास जी तो सम्राट अकबर तक का मान-मर्दन करने में नहीं झिझके-परमानन्ददासजी के भावपूर्ण पद का श्रवण कर महाप्रभु कई दिनों तक बेसुध पड़े रहे। मान्यता है कि उपास्य श्रीनाथजी ने कलि-मल-ग्रसित जीवों का उद्धार हेतु श्रीवल्लभाचार्यजी को दुर्लभ ‘आत्म-निवेदन -मन्त्र’ प्रदान किया और गोकुल के ठकुरानी घाट पर यमुना महारानी ने दर्शन देकर कृतार्थ किया। उनका शुद्धाद्वैत का प्रतिपादक प्रधान दार्शनिक ग्रन्थ है-‘अणुभाष्य’ (‘ब्रह्मसूत्र भाष्य’ अथवा उत्तरमीमांसा’)। अन्य प्रमुख ग्रन्थ है- ‘पूर्वमीमांसाभाष्य’, भागवत के दशम स्कन्ध पर ‘सुबोधिनी’ टीका, ‘त8वदीप निबन्ध’ एवं ‘पुष्टि -प्रवाह-मर्यादा’। संवत् 1587, आषाढ़ शुक्ल तृतीया को उन्होंने अलौकिक रीति से इहलीला संवरण कर सदेह प्रयाण किया।


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